पर्यावरण शब्द, परि तथा आवरण दो शब्दों से मिलकर बना है। परि का अर्थ है ‘चारों ओर’ तथा आवरण का अर्थ है ‘घेरा’। हमारे चारों ओर जो भी दिखाई देता है जैसे-हवा, पानी, मिट्टी, धूप, पेड़-पौधों, जीव-जन्तु, मनुष्य व अन्य वस्तुएं सभी पर्यावरण का हिस्सा है। ये सभी हमारे जीवन को प्रभावित करते हैं।
पर्यावरण की आवश्यकता एवं महत्त्व-
पर्यावरण से ही पृथ्वी पर समस्त जीवधारियों का अस्तित्व है। साँस लेने के लिए आॅक्सीजन हमें पर्यावरण की हवा से मिलती है। इसी प्रकार जल भी समस्त जीवधारियों के लिए आवश्यक है। यहाँ तक कि हमारी मूलभूत आवश्यकताओं अर्थात् भोजन, कपड़ा और मकान की पूर्ति भी हमारा पर्यावरण ही करता है। अन्य जीवों को भी भोजन और आवास पर्यावरण से ही मिलता है।
पर्यावरण के प्रकार
पर्यावरण को हम दो भागों में बाँट सकते हैं
1. प्राकृतिक (भौतिक) पर्यावरण
2. मानवीय (सामाजिक) पर्यावरण
प्राकृतिक पर्यावरण- इसके अन्तर्गत पर्यावरण का वह हिस्सा आता है जो प्रकृति हमें प्रदान करती है जैसे-जल, हवा, मिट्टी, पेड़-पौधे, जीव-जन्तु, सूर्य, नदी, पहाड़ आदि। इनको हम स्वयं नहीं बना सकते हैं।
प्राकृतिक पर्यावरण को हम पुनः दो भागों में बाँट सकते हैं-
1. जैविक पर्यावरण- इसके अन्तर्गत सभी प्रकार के जीव-जन्तु, मनुष्य और पेड़- पौधे आते हैं।
2. अजैविक पर्यावरण- यह स्थल (भूमि), जल और वायु से मिलकर बना है। इसके तीन रूप है।
स्थलमण्डल- पृथ्वी की सतह के ठोस भाग को स्थलमण्डल अथवा भूमण्डल कहते हैं। इसके अन्तर्गत पर्वत, पठार, रेगिस्तान, मैदान आदि आते हैं।
जलमण्डल-पृथ्वी के जल वाले सभी भागों को सम्मिलित रूप से जलमण्डल कहते हैं। पृथ्वी का तीन चैथाई भाग जल से घिरा है। इसके अन्तर्गत महासागर, सागर, नदी, तालाब, झील, नहर, नाले आदि आते हैं।
वायुमण्डल-पृथ्वी के चारों ओर पाई जाने वाली वायु वायुमण्डल का निर्माण करती है। वायुमण्डल में आक्सीजन, नाइट्रोजन, कार्बन-डाई-आॅक्साइड, आॅर्गन आदि गैसें पाई जाती हैं।
मानवीय (सामाजिक) पर्यावरण- ऐसी वस्तुएँ जो मनुष्य द्वारा निर्मित हैं जैसे-मकान, सड़क, बाजार, गाँव,
शहर, रेल, मोटर, वायुयान आदि हमारे सामाजिक पर्यावरण के भाग हैं। सामाजिक पर्यावरण का निर्माण हम प्राकृतिक पर्यावरण की सहायता से करते हैं। घर-परिवार, गाँव-शहर, बाजार, पंचायत, थाना, डाकखाना, विद्यालय, अस्पताल, कल-कारखाने आदि संस्थाएँ, सामाजिक पर्यावरण के अंग हैं।
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