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    15.7.20

    प्रमुख नागरिक एवं जनजातीय आंदोलन

    प्रमुख नागरिक एवं जनजातीय आंदोलन-
    भारत में अंग्रेजों के साम्राज्य विस्तार, भू राजस्व प्रणालियां, आर्थिक शोषण, सामाजिक धार्मिक भेदभाव, जनजातियों को उनके अधिकार से वंचित करना एवं स्थानीय समुदाय के साथ दुर्व्यवहार आदि के कारण विभिन्न क्षेत्रों में जन समुदाय के द्वारा अंग्रेजों के विरुद्ध  आंदोलन किए गए जिनमें कुछ का स्वरूप स्थानीय था जबकि कुछ जनांदोलन विस्तृत क्षेत्र में  फैल गए थे। प्रमुख जन आंदोलनों एवं जनजातीय आंदोलनों का विवरण इस प्रकार है-


    सन्यासी विद्रोह(1760- 1800 ई०)
    यह विद्रोह बंगाल में सन्यासियों के द्वारा प्रारंभ किया गया था जिसका प्रमुख कारण अंग्रेजों द्वारा तीर्थ यात्रा पर प्रतिबंध एवं तीर्थ कर लगाना था।
    इसके साथ 1770 ई०के बंगाल के भीषण अकाल ने किसानों, गरीबों की स्थिति अत्यंत खराब कर दी थी जोकि आंदोलन का प्रमुख कारण बना।
    सन्यासियों में अधिकांश शंकराचार्य के अनुयायी थे जो हिंदू नागा और गिरी सशस्त्र सन्यासी थे।इन्होंने किसानों एवं जनता के साथ मिलकर अंग्रेजों की कोठियों पर आक्रमण कर दिया।
    वारेन हेस्टिंग्स के द्वारा इस विद्रोह को दबा दिया गया।
    बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने अपने उपन्यास 'आनंदमठ' में सन्यासी विद्रोह का वर्णन किया है।

    फकीर विद्रोह(1776- 1777 ई०)
    इस विद्रोह की शुरुआत बंगाल में घुमक्कड़ मुसलमान धार्मिक फकीरों द्वारा की गई। इसका प्रेणता मजमून शाह को माना जाता है।
    इन्होंने अंग्रेजी शासन का विरोध किया तथा स्थानीय जमीदारों एवं किसानों से धन वसूलना आरंभ कर दिया।
    मजमून शाह के बाद इस विद्रोह का नेतृत्व चिरागअली शाह द्वारा किया गया। इसके अतिरिक्त भवानी पाठक और देवी चौधरानी जैसे हिंदू नेताओं ने भी इस आंदोलन की सहायता की थी।
    इस विद्रोह को 19वीं सदी के शुरुआती वर्षों तक अंग्रेजों द्वारा दबा दिया गया।

    पागलपंथी विद्रोह(1813- 1833 ई०)
    पागलपंथी उत्तरी बंगाल का एक अर्द्ध धार्मिक संप्रदाय था जिसकी शुरुआत 'करमशाह' ने की थी।
    आगे चलकर इस सम्प्रदाय के नेता 'टीपू' हुए जिन्होंने किसानों एवं काश्तकारों के पक्ष में जमीदारों के विरुद्ध विद्रोह कर उन पर हमले किये।
    इस दौरान टीपू अत्यधिक शक्तिशाली हुआ तथा उसने एक न्यायाधीश,मजिस्ट्रेट एवं जिलाधिकारी की नियुक्ति तक की।
    परंतु अंग्रेजों द्वारा 1833 तक इस विद्रोह को भी कुचल दिया गया।

    फराजी आंदोलन(1820- 1858 ई०)
    इस आंदोलन की शुरुआत हाजी 'शरीयतुल्लाह' द्वारा बंगाल में की गई थी इसका मुख्य उद्देश्य इस्लाम धर्म में सुधार करना था। शरीयतुल्लाह ने मुस्लिमों के शोषण को समाप्त करने एवं किसानों के हित के लिए अनेक प्रयास किए।
    ० आगे चलकर 'दादू मीर' के नेतृत्व में इस आंदोलन में उग्र रूप धारण किया तथा अंग्रेजों की सत्ता समाप्त करने का प्रयास किया गया,साथ ही जमीदारों के खिलाफ भी संघर्ष किए गए।
    ० दादू मीर की गिरफ्तारी एवं बाद में उनकी मृत्यु के बाद यह आंदोलन समाप्त हो गया और इसके समर्थक बहावी आंदोलन से जुड़ गए।

    वहाबी आंदोलन(1820 - 1870 ई०)
    यह आंदोलन मुस्लिम समाज में सुधार प्रारंभ किया गया था।इसके संस्थापक अब्दुल वहाब थे, भारत में इस आंदोलन को सैयद अहमद रायबरेलवी ने लोकप्रिय बनाया।
    यह पूर्वी तथा मध्य भारत एवं उत्तर पश्चिम भारत में सक्रिय था।
    इस आंदोलन का चरित्र सांप्रदायिक था परंतु इसमें हिंदुओं का विरोध नहीं किया गया था बल्कि वहाबी अंग्रेजों की सत्ता को उखाड़कर मुस्लिम सत्ता की स्थापना करना चाहते थे।
    सैयद अहमद ने 1830 में कुछ समय के लिये पेशावर पर अधिकार कर लिया था तथा अपने नाम के सिक्के चलवाए,परंतु शीघ्र ही उनकी मृत्यु हो गई इसके बाद बहावी आंदोलन का केंद्र पटना हो गया।

    कूका आंदोलन(1840 - 1870 ई०)
    इस आंदोलन की शुरुआत पंजाब में भगत जवाहर मल(सियाना साहिब) द्वारा सिख धर्म में सुधार हेतु की गई थी, परंतु धार्मिक रूप में प्रारंभ यह आंदोलन बाद में राजनीतिक आंदोलन में परिवर्तित हो जाता है जिसका उद्देश्य अंग्रेजों की सत्ता को हटाना होता है।
    जवाहर मल के शिष्य बालक सिंह ने अपने अनुयायियों के साथ अपना मुख्यालय हजारी(उत्तर-पश्चिम सीमा प्रान्त) नामक स्थान को बनाया था।
    राम सिंह कूका के नेतृत्व में यह आंदोलन तीव्र गति पकड़ता है परंतु अंग्रेजों द्वारा रामसिंह कूका को पकड़कर रंगून निर्वासित कर दिया जाता है।

    भील विद्रोह-
    राजस्थान की भील जनजाति में 'डाकन प्रथा' प्रचलित थी जिसमें महिलाओं को डायन बताकर उन पर अत्याचार किया जाता था इस प्रथा को जब अंग्रेजों ने समाप्त किया तो भील समुदाय के लोगों ने अंग्रेजों विरुद्ध आंदोलन की घोषणा कर दी।
    इसके साथ में अंग्रेज द्वारा किए जा रहे आर्थिक शोषण के खिलाफ भी भील समुदाय एकजुट हो गया।
    इसके नेतृत्वकर्त्ता दौलत सिंह थे।

    गड़करी विद्रोह(1844 ई०)
    गडकरी मराठों के वंशानुगत सैनिक थे, जब अंग्रेजों द्वारा मराठा साम्राज्य का अंत कर दिया गया तो इन लोगों को भी अपने अधिकार से वंचित होना पड़ा।
    इसके अतिरिक्त इन्होंने बढ़े हुए भू राजस्व के खिलाफ भी संघर्ष किया।
    महाराष्ट्र के कोल्हापुर में यह विद्रोह हुआ था।
     विद्रोह के नेता मराठा सरदार कोण्ड सावंत थे लेकिन अंग्रेजों ने इस विद्रोह को शीघ्र ही कुचल दिया।

    रामोसी विद्रोह(1822- 1826 ई०)
    रामोसी पश्चिमी घाट की जनजाति थी जो मराठों की सैन्य सेवा में थे परंतु अंग्रेजों के शासनकाल में यह बेरोजगार हो गए।
    इसके अतिरिक्त अंग्रेजों ने इनकी जमीन पर लगान भी बढ़ा दिया था इसी कारण 1822 में चित्तर सिंह के नेतृत्व में सतारा में रामोसियों ने विद्रोह कर दिया।
    1826 में उमाजी के नेतृत्व में दूसरी बार विद्रोह किया गया।
    सरकार द्वारा इस विद्रोह को दबाने के लिए इन्हें भूमि अनुदान में दी गई तथा पहाड़ी पुलिस में नौकरी प्रदान की गई।

    किट्टूर चेन्नम्मा विद्रोह(1824- 29 ई०)
    यह विद्रोह कर्नाटक किट्टूर में हुआ जब अंग्रेजों ने स्थानीय राजा की मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारी को मान्यता प्रदान नहीं की।
    इसके विरोध में राजा की विधवा चेन्नम्मा ने अंग्रेजो के खिलाफ विद्रोह कर दिया इसमें चेन्नम्मा की सहायता रामप्पा ने की थी।

    जस्टिस आंदोलन(1916-17 ई०)
    आंदोलन तमिलनाडु में व्यापारी वर्ग द्वारा  ब्राह्मणों की श्रेष्ठता को चुनौती देने के लिए चलाया गया।
    इस आंदोलन के नेता नायर, मुदलियार और त्यागराज थे।

    आत्मसम्मान आंदोलन(1920 ई०)
    यह आंदोलन तमिलनाडु में ई० वी० रामास्वामी के द्वारा चलाया गया था जो पेरियार के नाम से प्रसिद्ध हैं।
    आंदोलन ब्राह्मणों की श्रेष्ठता को चुनौती देने के लिए चलाया गया था तथा इसमें मंदिर प्रवेश, जाति प्रथा के आधार पर भेदभाव की समाप्ति जैसे मुद्दे उठाए गए थे।
    इस आंदोलन में मनुस्मृति का विरोध किया गया था।

    बेलुटम्पी विद्रोह(1808- 09 ई०)
    यह केरल में त्रावणकोर में दीवान बेलुटम्पी द्वारा अंग्रेजों के विरुद्ध शुरू किया गया जिसका कारण सहायक संधि तथा दीवान का पद बेलुटम्पी से छीन लेना था।
    अंग्रेजों ने इस विद्रोह को दबा दिया तथा बेलुटम्पी को फांसी दे दी।

    रम्पा विद्रोह(1879 ई०)
    यह विद्रोह आंध्र प्रदेश में राजू रम्पा के नेतृत्व में किया गया।
    इसका प्रमुख कारण जागीरदारी प्रथा तथा इस क्षेत्र में लागू वन कानून थे।जिससे स्थानीय समुदाय का शोषण तथा आजीविका पर प्रभाव पड़ रहा था।

    खोंड विद्रोह(1837- 56 ई०)
    यह विद्रोह उड़ीसा में चक्रबिसोई के नेतृत्व में हुआ।
    जब अंग्रेजों द्वारा खोंडो में प्रचलित नरबलि प्रथा पर प्रतिबंध लगाया गया तो इस समुदाय ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। इसके अतिरिक्त जमीदारों एवं साहूकारों का इनके क्षेत्र में प्रवेश भी विद्रोह का एक कारण था।

    पाइक विद्रोह(1817 ई०)
    उड़ीसा में पाइक समुदाय ने अंग्रेजों द्वारा "भूमि पर लगान लगाने के विरुद्ध" विद्रोह किया था।
    इस आंदोलन के प्रमुख नेता 'जगबंधु' थे जिन्होंने अंग्रेजों को पराजित कर पुरी पर अधिकार कर लिया था।

    संथाल विद्रोह(1855- 56 ई०)
    यह विद्रोह मुख्य रूप से भागलपुर से लेकर राजमहल(दामन ए कोह) तक फैला हुआ था।
    इस विद्रोह को सिद्धू, कान्हू नामक दो भाइयों ने अपना नेतृत्व प्रदान किया था तथा स्वयं को ठाकुर जी(भगवान) का अवतार घोषित किया।
    इस विद्रोह के मुख्य कारण अंग्रेजों की शोषणपरक आर्थिक नीतियां, पुलिस का दमन ,जमीदारों साहूकारों द्वारा वसूली तथा बाहरी लोगों का जनजाति क्षेत्रों में प्रवेश(जिन्हें दिकू कहा जाता था) आदि थे।
    सिद्धू ,कान्हू को पकड़ कर अंग्रेजों द्वारा मार दिया गया तथा विद्रोह को कुचल दिया गया।
    यह विद्रोह 1857 की क्रांति से मात्र एक वर्ष पूर्व ही हुआ था।

    मुंडा विद्रोह(1890- 1900 ई०)
    यह विद्रोह छोटानागपुर पठार(झारखंड) क्षेत्र में हुआ था,इसे उलगुलान विद्रोह(महान हलचल) के नाम से भी जाना जाता है।
    यह आंदोलन सामाजिक धार्मिक सुधार के रूप में प्रारंभ हुआ था परंतु शीघ्र ही यह अंग्रेजो के विरुद्ध आंदोलन का रूप धारण कर देता है।
    इस विद्रोह का नेतृत्व बिरसा मुंडा ने किया था तथा उन्होंने स्वयं को ईश्वर का प्रतिनिधि घोषित किया तथा अनेक ईश्वर को मानने के स्थान पर सिंहबोंगा(एकेश्वरवाद) की आराधना का उपदेश दिया।
    इस विद्रोह के प्रमुख कारणों में खुंटीकुटी के अधिकारों का उल्लंघन ,अंग्रेजों की शोषणपरक नीतियां,साहूकारों -जमींदारों द्वारा वसूली तथा जनजातीय समाज में हस्तक्षेप आदि थे।
    मुंडा समुदाय ने अंग्रेजों पर तीव्र हमले के लिए परंतु अंग्रेजों की दमनकारी नीतियों एवं बिरसा मुंडा की गिरफ्तारी के कारण इस विद्रोह को दबा दिया गया।

    नोट:- खुंटीकुटी प्रथा में सामूहिक भू स्वामित्व पर आधारित कृषि व्यवस्था पर बल दिया जाता था परंतु अंग्रेजों इस व्यवस्था को समाप्त कर निजी भू स्वामित्व की व्यवस्था लागू की थी।

    खासी विद्रोह(1828- 33 ई०)
    यह विद्रोह मेघालय में खासी जनजाति के द्वारा इस क्षेत्र में अंग्रेजों द्वारा साम्राज्य विस्तार एवं सड़क निर्माण के विरोध में किया गया।
    इस विद्रोह के नेता तीरथ सिंह थे।

    कूकी विद्रोह(1826 - 44 ई०)
    ० यह मणिपुर में जनजातीय समुदाय द्वारा अंग्रेजों के नीतियों एवं शोषण के खिलाफ विद्रोह किया गया।

    हो विद्रोह(1820,1831-37 ई०)
    ० यह विद्रोह झारखंड में हो जनजाति के लोगों द्वारा किया गया था।
    ० 1820-21 में 'हो' समुदाय ने सिंहभूमि के राजा जगन्नाथ सिंह के विरुद्ध विद्रोह किया। परन्तु इस विद्रोह को अंग्रेजों द्वारा दबा दिया गया।

    कोल विद्रोह(1829- 39 ई०)
    यह विद्रोह झारखंड के रांची ,हजारीबाग,सिंहभूमि, पलामू आदि क्षेत्रों में फैला।
    इसका प्रमुख कारण भूमि संबंधी असंतोष था।
    1831 ई० में बुद्ध भगत ने इसको नेतृत्व प्रदान किया।

    पहाड़ियाँ विद्रोह(1778 ई०)
    यह विद्रोह राजमहल की पहाड़ियों के जनजातियों द्वारा किया गया था।
    इसका प्रमुख कारण अंग्रेजों द्वारा जनजाति क्षेत्रों में हस्तक्षेप था।
    1778 ई० में अंग्रेज़ एवं जनजातियों के संघर्ष के बाद अंग्रेजों ने इस क्षेत्र को दामनी कोल क्षेत्र घोषित कर दिया।

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