-राष्ट्रीय आंदोलन का द्वितीय चरण-
दिल्ली दरबार(1911 ई०)-
दिल्ली में 12 दिसंबर 1911 को ब्रिटेन के सम्राट 'जार्ज पंचम' और महारानी 'मेरी' के आगमन पर दिल्ली दरबार का आयोजन किया गया, दिल्ली दरबार में निम्नलिखित महत्वपूर्ण घोषणाएं की गयीं-
1. बंगाल विभाजन रद्द कर दिया गया तथा उड़ीसा व बिहार को बंगाल से अलग करके एक नया प्रांत बनाया गया।
2. राजधानी कलकत्ता से स्थान्तरित करके दिल्ली को बनाया गया।
नोट:- दिल्ली को राजधानी बनाए जाने की घोषणा 1911 में की गई परंतु वास्तविक रूप में 1912 में दिल्ली भारत की राजधानी बनी। राजधानी स्थानांतरित होने के दौरान 23 दिसंबर 1912 में लॉर्ड हार्डिंग पर चांदनी चौक में बम फेंका जाता है जिसे दिल्ली कांड के नाम से जाना जाता है इसके आरोप में अमीर चंद, भाई बाल मुकुंद,अवध बिहारी और बसंत कुमार विश्वास को फांसी दे दी जाती है तथा रासबिहारी बोस यहां से भागकर जापान जाने में सफल हो जाते हैं।
प्रथम विश्व युद्ध की राजनीति:-
० 1914 प्रारंभ हुए प्रथम विश्व युद्ध में एक तरफ इंग्लैंड,रूस एवं फ्रांस थे तो दूसरी ओर जर्मनी ,इटली, ऑस्ट्रेलिया व तुर्की थे।
० उदारवादी नेताओं ने प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटिश सरकार का समर्थन इस उद्देश्य से किया कि बदले में अंग्रेज उनकी स्वराज अथवा सुशासन की मांग को अंग्रेज पूरा करेंगे।
० प्रथम विश्व युद्ध के दौरान गांधीजी तथा बाल गंगाधर तिलक ने ब्रिटिश सरकार की सहायता के लिए धन और सेना की व्यवस्था हेतु गांवों का दौरा किया था।
० गांधी जी को "भर्ती कराने वाला सार्जेंट" भी कहा जाता है तथा ब्रिटिश सरकार ने केसर-ए-हिंद की उपाधि दी थी।
० इस दौरान अंग्रेजों का समर्थन कांग्रेस,भारतीय रियासते एवं मुस्लिम लीग आदि सभी कर रहे थे।
० 1910 के बाद राष्ट्रवादी मुसलमानों का आगमन होता है इसमें मोहम्मद अली, हसन इमाम, हकीम अजमल खान प्रमुख नेता थे इन्होंने मुसलमानों को सरकार की चाटुकारिता बंद कर उनसे राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ने का आह्वान किया।
० प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटेन द्वारा तुर्की के विरुद्ध युद्ध की घोषणा से मुस्लिम लीग का अंग्रेजों के प्रति मोहभंग हो गया क्योंकि तुर्की के खलीफा को संपूर्ण विश्व के मुसलमान अपना आध्यात्मिक नेता मानते थे और उस पर हमले को मुसलमानों ने अपनी अस्मिता पर हमला माना। इस घटना के बाद मुस्लिम लीग, कांग्रेस के नजदीक आने लगती है।
कामागाटामारू प्रकरण(1914)
1. कनाडा सरकार ने ऐसे भारतीयों को कनाडा में प्रवेश देने से मना कर दिया जो सीधे भारत से नहीं आए होते थे। यह कानून काफी कठोर था क्योंकि उस समय कोई रास्ता भारत से सीधे कनाडा नहीं पहुंचता था।
2. परंतु 1913 में कनाडा के सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसे 35 भारतीयों को कनाडा में प्रवेश की अनुमति दे दी जो सीधे भारत से कनाडा नहीं आए थे।
3. इस निर्णय से प्रोत्साहित होकर गुरदीप सिंह(सिंगापुर के भारतीय मूल के व्यापारी) 'कामागाटामारू' नामक जापानी जहाज़ को किराये पर लेकर लगभग 376 व्यक्तियों के साथ बैंकूवर की ओर प्रस्थान करते हैं लेकिन कनाडा पहुंचते ही उन्हें वहाँ जहाज़ से उतरने नही दिया जाता है।
4. यात्रियों के अधिकार की रक्षा हेतु "शोर कमेटी" का गठन होता है जिसमें रहीम हुसैन,सोहनलाल पाठक और बलवंत सिंह सदस्य थे।
5. कनाडा सरकार के अड़ियल रवैये के कारण जहाज़ को कनाडा की जल सीमा को छोड़ना पड़ा तथा अंग्रेज़ सरकार ने इस जहाज को सीधे कलकत्ता के बजबज बंदरगाह आने का आदेश दिया, यहाँ पहुँचने पर यात्रियों और पुलिस में संघर्ष होता है जिसमे लगभग 18 यात्रियों की मृत्यु हो जाती है तथा शेष को जेल में डाल दिया जाता है।
कांग्रेस का लखनऊ अधिवेशन(1916 ई०)
कांग्रेस का 1916 का वार्षिक अधिवेशन लखनऊ में हुआ जिसकी अध्यक्षता अंबिकाचरण मजूमदार ने की। इस समझौते के अंतर्गत दो महत्वपूर्ण घटनाएं निम्नलिखित थी-
1. इस अधिवेशन में नरमपंथी तथा गरमपंथी मिलकर पुनः एक हो गए।
1906 के सूरत अधिवेशन के बाद यह प्रथम अवसर था कि दोनों कांग्रेस के मंच पर एक साथ आए । इनको एक साथ लाने में बाल गंगाधर तिलक एवं एनी बेसेंट की महत्वपूर्ण भूमिका थी।
2. इसी अधिवेशन में कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग के बीच एक समझौता होता है जिसे लखनऊ पैक्ट या लखनऊ समझौता कहा जाता है।
लखनऊ समझौता के अंतर्गत कांग्रेस ने पहली बार मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचन मंडल की मांग को औपचारिक रूप से स्वीकार कर लिया( इसे कांग्रेस की बड़ी भूल कहा जाता है) तो दूसरी तरफ मुस्लिम लीग ने कांग्रेस की उत्तरदायी शासन की मांग को स्वीकार किया।
लखनऊ समझौता को करवाने में मोहम्मद अली जिन्ना की महत्वपूर्ण भूमिका थी। सरोजिनी नायडू ने मोहम्मद अली जिन्ना को लखनऊ पैक्ट का आर्किटेक्ट कहा है।
मुस्लिम लीग एवं कांग्रेस के साथ आने का कारण:-
1910 के बाद मुस्लिम लीग एवं अंग्रेजों के बीच दूरियां बढ़ने लगती हैं तथा इसी दौरान राष्ट्रवादी मुसलमानों का आगमन मुस्लिम लीग में होता है। जिसके परिणामस्वरूप 1913 के मुस्लिम लीग के लखनऊ अधिवेशन में पहली बार मुस्लिम लीग के नेताओं द्वारा स्वशासन के राष्ट्रीय लक्ष्य को स्वीकार किया जाता है तथा कांग्रेस के साथ सहयोग पर भी बल देते हैं।
1915 में जिन्ना के प्रयासों से बम्बई में कांग्रेस और लीग के अधिवेशन साथ साथ हुए तथा दोनों ने आपसी सहयोग पर बल देते हुए संवैधानिक सुधार की योजना बनाने और उसे लागू करवाने के लिए सरकार पर दबाव बनाने पर सहमति व्यक्त की।
दूसरी तरफ कांग्रेस भी जानती थी कि यदि राष्ट्रीय आंदोलन को सफल बनाना है तो हिन्दू- मुस्लिम के साथ संपूर्ण जनता की भागीदारी अति आवश्यक है।
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