स्थलीय तथा सागरीय समीर-
सागरीय तटों पर एक ऐसी समीर प्रवाहित होती है जो रात और दिन में अर्थात 12-12 घंटे के अंतराल पर अपनी दिशा में परिवर्तन कर लेती है। दिन के समय यह समीर सागरीय तटों पर सागर से स्थल की ओर बहती है जिस कारण इसे 'सागरीय समीर' कहते हैं इसके विपरीत रात्रि में यह स्थल से सागर की ओर बहती है जिससे इसे 'स्थलीय समीर' कहते हैं।
पवन की दिशा में परिवर्तन का कारण-
जल की विशिष्ट ऊष्मा क्षमता स्थल की विशिष्ट ऊष्मा क्षमता से बहुत अधिक होती है इसलिए जल, स्थल की तुलना में देर से गर्म और देर से ठंडा होता है इसी कारण विशिष्ट ऊष्मा क्षमता में अत्यधिक भिन्नता के कारण सागरीय तत्वों पर हवाओं की दिशा परिवर्तित होती रहती है।
सागरीय समीर-
जब दिन के समय समुद्री तटों पर सूर्य की किरणें पड़ती हैं तो समुद्र की सतह की तुलना में स्थल जल्दी से गर्म हो जाता है और उसके संपर्क में आने वाली हवाएं गर्म एवं हल्की होकर ऊपर उठने लगती है और स्थलीय भाग पर निम्न दाब क्षेत्र बन जाता है जबकि इस समय समुद्र की सतह का जल ठंडा रहता है जिससे वहां उच्च दाब क्षेत्र बनता है जिस कारण दिन के समय हवाएं समुद्री उच्च दाब से स्थलीय निम्न दाब की ओर बहने लगती है चूंकि यह हवाएं समुद्र की तरफ से आती हैं इसलिए इन्हें 'सागरीय समीर' कहते हैं।
स्थलीय समीर-
सामुद्रिक तटों पर सूर्यास्त के बाद स्थलीय भाग की ऊष्मा, विकिरण द्वारा वायुमंडल में विलुप्त होने लगती है जिस कारण स्थलीय भाग पर उच्च वायुदाब क्षेत्र बन जाता है तथा सूर्यास्त के उपरांत स्थलीय भाग की तुलना में समुद्र की सतह गरम रहती है जिस कारण इसके ऊपर निम्न वायुदाब क्षेत्र बन जाता है अतः रात्रि के समय समुद्री तटों पर स्थलीय उच्च दाब क्षेत्र से सागरीय निम्न दाब क्षेत्र की ओर हवाएं बहने लगती हैं इन हवाओं को 'स्थलीय समीर' कहते हैं।
स्थानीय तथा सागरीय समीरों के प्रभाव से ही समुद्र तटीय क्षेत्रों में मौसमी दशाएं लगभग एक जैसी बनी रहती हैं। सागरीय समीर जल से होकर आती हैं जब इसमें आर्द्रता या जलवाष्प की पर्याप्त मात्रा होती है तो तटीय क्षेत्रों में इससे बारिश भी होती है।
No comments:
Post a Comment