बालकेन्द्रित शिक्षा की मुख्य विशेषताएं हैं –
बालकों को समझना किसी भी क्षेत्र में सफलता के लिए शिक्षक को बालक के मनोविज्ञान की पूरी जानकारी होनी चाहिए। इसके अभाव में वह न तो बालक की समस्याओं को समझ सकता है और न ही उसकी विशेषताओं को समझ सकता है। जिसके परिणामस्वरूप बालक पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। शिक्षक को बालक के मूल आधारों, आवश्यकताओं, रुचिओं, व्यक्तित्व के बारे में पता होना चाहिए। मूल व्यवहारों का ज्ञान होना तो परम आवश्यक है। शिक्षा बालक के संवेगों , प्रवृतियों और प्रेरणा पर आधारित होनी चाहिए। व्यवहारों मूल आधारों को नयी दिशाओं में मोड़ा जा सकता है अर्थात इनका शोधन किया जा सकता है। एक उत्तम शिक्षक इनके शोधन का प्रयास करता है। बालक जो कुछ सीखता है उसका उसकी आवश्यकताओं से करीबी सम्बन्ध होता है। स्कूल के पिछड़े और समस्याग्रस्त बालक अधिकतर ऐसे होते हैं जिनकी मनोवैज्ञानिक आवश्कयताएँ स्कूल में पूरी नहीं होती। मनोविज्ञान शिक्षक को बताता है की प्रत्येक बालक की मनोवैज्ञानिक आवश्यकता भिन्न भिन्न होती है।
शिक्षण विधि
शिक्षा क्षेत्र शिक्षक को यह बताता है की बच्चो को क्या पढ़ना है। परन्तु समस्या यह है की उन्हें पढ़ाना कैसे है इस समस्या को सुलझाने में बाल मनोविज्ञान शिक्षक की सहायता करता है। बाल विज्ञानं सिखने की परिक्रिया , विधियों , महत्वपूर्ण कारकों , अच्छी या बुरी दशाओं अादि तत्वों से परिचित करवाता है। इनके ज्ञान से बालकों को सिखने में सहायताप्रयोग एवं अनुसन्धान
बाल केंद्रित शिक्षा में बच्चों को प्रयोग एवं अनुसन्धान की आकर्षित करने के लिए भी मनोविज्ञान का सहारा लिया जाता है। नयी नयी परिस्थितियों में नई नई समस्याओं को सुलझाने के लिए शिक्षक को अलग अलग प्रयोग करने चाहिए उससे निकलने वाले निष्कर्षों का उपयोग करना चाहिए।
कक्षा में समस्याओं का निदान और निराकरण
बाल केंद्रित शिक्षा में विभिन्न समस्याओं को पहचानने के लिए और उनका हल करने के लिए भी बाल मनोविज्ञान का प्रयोग किया जाता है। मिलती है। मनोविज्ञान शिक्षण की विधियों का विश्लेषण है। उनमे सुधर के उपाय भी बतलाता है। बाल केंद्रित शिक्षा विधि को प्रयोग में लाते समय बाल मनोविज्ञान को ही आधार बनाया जाता है।
मूल्यांकन और परीक्षण
शिक्षण से ही शिक्षक की समस्या का समाधान नहीं हो जाता है उसे बालकों के ज्ञान और विकास का मूल्याङ्कन करना होता है। मूल्याङ्कन से परीक्षार्थी की क्षमता का पता चलता है। परीक्षा द्वारा मूल्याङ्कन से पता चलता है की बच्चे ने कितनी प्रगति की है। भारतीय शिक्षा प्रणाली में मूल्याङ्कन शब्द का सम्बन्ध परीक्षा, दुश्चिंत तथा तनाव से है। बाल केंद्रित शिक्षा में सतत एवं व्यापक मूल्याङ्कन पर जोर दिया गया है जिससे उनमे तनाव को काम किया जा सके। सतत एवं व्यापक मूल्याङ्कन से अभिप्राय छात्रों के स्कूल आधारित मूल्याङ्कन से है जिसमे विकास के सभी पक्ष शामिल हैं। यदि विकास में कंही कमी रह गयी है तो उन्हे पूरा करने के लिए कोण कोण से उपाय करने चाहिए इन सभी प्रश्नो को सुलझाने के लिए विभिन्न प्रकार के परीक्षणों और मापो की आवश्यकता पड़ती है। पाठ्यक्रम
समाज और व्यक्ति की विकास की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पाठ्यक्रम का विकास व्यक्तिगत विभिन्नताओं प्रेरणाओं ,मूल्यों और सिखने के सिद्धांतों पर आधारित होनी चाहिए। पाठ्यक्रम बनाने के समय शिक्षक यह ख्याल रखता है की बालक की और समाज की क्या आवश्यकता हैं और सिखने की कोण सी क्रियाओं से इन आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। इस तरह बाल केंद्रित शिक्षा में इस बात पर जोर दिया जाता है कि पाठ्यक्रम पूर्ण रुप से बाल मनोविज्ञान पर आधारित होना चाहिए।
व्यवस्थापन एवं अनुशाशन
कक्षा में अनुशाशन बनाने के लिए भी विज्ञानं का सहारा लिया जाता है। कभी कभी शरारती बच्चो में भी अच्छे गुणों का समायोजन किया जाता है उस परिस्थिति में शिक्षक को चाहिए की उसे दबाने की बजाय प्रोत्साहित करे।
बालकेन्द्रित शिक्षा के सिंद्धांत
1 क्रिया शीलता का सिद्धांत इस शिक्षण सिद्धांत द्वारा छात्रों कको क्रियाशील रख कर ज्ञान प्रदान किया जाता है किसी भी क्रिया को करने में छात्र के हाथ , पेर और मस्तिष्क सब क्रियाशील हो जाते है। अर्थात एक अधिक ज्ञानिन्द्रियों का प्रयोग बालक के अधिगम को और अधिक प्रभावी बना देता है।
2 प्रेरणा का सिद्धांत छात्र के अनुकरणीय व्यव्हार नैतिक कहानियो व् नाटकों अदि के द्वारा बालक अच्छी तरह से सीखते है। महापुरषों वैज्ञानिकों के उदाहरण सदा प्रेरणा दायी होते हैं।
3 जीवन से सम्बंधित करने का सिद्धांत ज्ञान बालक के जीवन से सम्बंधित होता है।
4 रूचि का सिद्धांत रूचि कार्यक करने की प्रेरणा देती है। अतः शिक्षण बालक की रूचि के अनुसार दिया जाना चाहिए
5 निश्चित उद्देश्य का सिद्धांत आज के समय मे बालक को दी जाने वाली शिक्षा बालक के उद्देश्यों को पूर्ण करने वाली होनी चाहिए। उद्द्शेय निश्चित होगा तो सफलता निश्चित ही मिलेगी।
6 चयन का सिद्धांत छात्रों को उनकी रूचि के अनुसार पढ़ाएं जैसे खेलने का मन हो तो उसी मूड में कैसे पढ़ाया जाए यह चयन करे। बालक की योग्यता के अनुसार विषय वास्तु का चयन करना चाहिए।
7 व्यक्तिगत विभिन्नताओं का सिद्धांत प्रत्येक बालक का i.q अलग होता है अतः उनकी विभिन्नताओं को ध्यान मए रखना चाहिए।
8. लोकतंत्रीय सिद्धांत हमारे लिए कक्षा में सभी विद्यार्थी समान हैं। सभी से समान प्रश्न पूछने चाहियें। उनसे कोई भेद भाव नहीं होना चाहिए।
9 विभाजन का सिद्धांत जो भी पढ़ाएं उसे कुछ भागों में बाँट कर सरल करके पढ़ाएं।
10 निर्माण व् मनोरंजन का सिद्धांत हस्त कला एवं रचनात्मक कार्य भी करवाएं। इन कार्यों से बालक की अध्यन में रूचि बढती है।
बालकेन्द्रित शिक्षा का स्वरूप
1 पाठ्यक्रम लचीला होना चाहिए।
2 वातावरण के अनुसार होना चाहिए।
3 पाठ्यक्रम जीवनोपयोगी होनी चाहिए।
4 पाठ्यक्रम पूर्व ज्ञान पर आधिरित होनी चाहिए।
5 क्रियाशीलता के सिद्धांत के अनुसार होना चाहिए।
6 बालक की रूचि के अनुसार हानि चाहिए
7 शैक्षिक उद्देश्यों के अनुसार होनी चाहिए।
8 बालक के मानसिक स्तर के अनुसार होना चाहिए।
9 पाठ्यक्रम बालक के मानसिक स्तर के अनुसार होना चाहिए।
10 पाठ्यक्रम में राष्ट्रिय भावना को विकसित करने वाले कारक होने चाहिए।
संवेगात्मक विकास
संवेग व्यक्ति की शारीरिक मानसिक एक जटिल दशा है। जिससे शारीरिक मानसिक परिवर्तन आता है।
वॉटसन ने 1919 में नवजात शिशुओं कें संबंध में संवेगों का अध्ययन किया। इसके अनुसार जन्म के समय भय, क्रोध और प्यार संवेग होता है।
शेरमैन मनोवैज्ञानिक के अनुसार जन्म के दो सप्ताह बाद शिशु के सांवेगिक अनुक्रिया करने की क्षमता आ जाती है। इस अवस्था में शिशु में सामान्य आवेश होता है या सामान्य संवेग होता है।
ब्रिजेज नामक महिला मनोवैज्ञानिक के अनुसार 24 माह की उम्र तक शिशुओं में क्रोध, भय, अनुराग संवेग विकसित हो जाते हैं। 3 माह की उम्र में दुःख, आनंद, 6 माह की उम्र में भय क्रोध, घृणा, 1 वर्ष में उम्र में उल्लास और अनुराग, 18 माह की उम्र में शिशु के संवेग विशिष्ट हो जाते है।
ब्रिजेज के अनुसार सबसे अंत में हर्ष/खुशी संवेग उत्पन्न होता है। इस प्रकार 24 माह तक बालक में सभी संवेग उत्पन्न हो जाते हैं।
प्रारम्भिक बाल्यवस्था में संवगों का विकास
प्रारम्भिक बाल्यवस्था 2 से 6 वर्ष तक मानी जाती है। इस उम्र में आठ प्रकार के संवेग बालक में देखे जाते है। जैसे-क्रोध, ईर्ष्या, भय, जलन, दुःख, खुशी/हर्ष, अनुराग/आकर्षण।
प्रारम्भिक बाल्यवस्था के संवेगों का शिक्षा में महत्व
प्रारम्भिक बाल्यवस्था में संवगों की बारंबारता और तीव्रता अधिक होती है। तीव्रता और बारंबारता का मुख्य कारण मनोवैज्ञानिक होता है। क्योंकि इस अवस्था में बालक पर माता-पिता का प्रतिबंध होता है जबकि बालक माता-पिता का विरोध करते हैं जिससे संवेगों की तीव्रता अधिक हो जाती है।
इस अवस्था में बालक औपचारिक रूप से विद्यालय में प्रवेश नहीं लेते हैं। लेकिन फिर भी आने वाली शेष अवस्थाओं में उत्पन्न होने वाले संवेगों के लिए इस अवस्था के संवेग आधारभूत होते हैं।
इस अवस्था में बालक को किड स्कूल, नर्सरी स्कूल में प्रवेश देकर उसके व्यक्तित्व को सही मार्गदर्शन दिया जा सकता है ।
उत्तर बाल्यवस्था में संवेगों का विकास
यह अवस्था 6 से 12 वर्ष तक होती है। इस अवस्था में वे सभी संवेग प्रबल होते हैं जो प्रारम्भिक बाल्वस्था में होते है। इस अवस्था में इन संवेगों की अभिव्यक्ति कुछ निम्न प्रकार से होती है- वे अपने संवगों को नियंत्रित तरीके से अभिव्यक्त करने लगते हैं। इस अवस्था में संवगों की तीव्रता का कारण शारीरिक या पर्यावरण हो सकता है। बालक अपने संवेगों पर नियंत्रण करना सीख लेता है। बालक को अच्छे-बुरे संवगों को समझने लगता है।
उत्तर बाल्यवस्था के संवेगों का शिक्षा में महत्व
शिक्षकों के लिए इस अवस्था के संवेग उनके अध्यापन कार्य में सहयोग कर सकते हैं। वे बालकों को पहचान सकते हैं विशिष्ट बालक, उपद्रव्य बालक, शान्त बालक, समस्यात्मक बालक की पहचान कर उन बच्चों के अनुसार अध्यापन की रूप रेखा बना सकता है।
शिक्षक बालकों की अभिरूचि के अनुसार उन्हें मार्गदर्शन देता है।
किशोरावस्था में संवेगों का विकास
- 13 वर्ष वे लेकर 13 वर्ष की उम्र किशोरावस्था का काल है। इस अवस्था को आंधी और तूफान की अवस्था कहते है। किशोरावस्था में बालकों में सभी संवेग स्पष्ट दिखाई देते हैं।
- इस अवस्था में ईर्ष्या, जलन, क्रोध, डर, दुश्चिंता, अनुराग, दुःख जैसे संवेग स्पष्ट दिखने लगते है।
- इस अवस्था में बालक अपने संवेगों पर नियंत्रण भी कर लेता है। उनमें संवेगात्मक परिपक्वता विकसित हो जाती है।
- शिक्षकों के लिए किशोरावस्था के संवेगों का अत्यधिक महत्व है। वे संवेगों के अनुसार अपने शिक्षण कार्य में बदलाव कर सकते हैं। ताकि बालक उस शिक्षण कार्य का लाभ उठा सके।
- बालकों में संवेगात्मक तनाव के कारण
- बालकों में संवेगात्मक तनाव के कई कारण हो सकते है। जैसे-आर्थिक, सामाजिक, वातावरणीय, पारिवारिक, मनोवैज्ञानिक आदि।
- प्राथमिक कक्षाओं में प्रवेश लेने पर बालक नए वातावरण के संपर्क में आता है। और उसे नए वातावरण में समायोजन करने में कठिनाई होती है।
- बालक जैसे-जैसे ऊपर की कक्षा में क्रमोनत होता है उसमें सांवेगिक तनाव कम होता जाता है लेकिन विद्यालय परिवर्तन के साथ ही उसमें इस तरह के तनाव उत्पन्न हो जाते हैं।
- सांवेगिक तनाव के लिए सामाजिक समस्या भी उत्तरदायी है। क्योंकि विद्यार्थियों के द्वारा अपने संबंध में लिए गए निर्णय कितने सही है इसके संबंध में निश्चित नहीं कहा जा सकता। इसके परिणामस्वरूप तनाव की स्थिति उत्पन्न होती है।
- अगर बालक लम्बे समय से किसी बीमारी से ग्रसित है तो उसमें सांवेगिक तनाव की मात्रा अधिक होगी।
- स्कूल का वातावरण, शिक्षकों का व्यवहार, शिक्षकों की निरंकुशता, बालक का एक ही कक्षा में बार-बार फेल होना सांवेगिक तनाव के कारण है।
- माता-पिता के द्वारा बालक का अत्यधिक समझाते रहने से सांवेगिक तनाव उत्पन्न होता है क्योंकि वह अपने माता-पिता के कहे अनुसार कार्य करने की कोशिश करता है जिससे उसमें तनाव उत्पन्न होता है।
- संवेग का विद्यार्थी पर प्रभाव
- संवेग का विद्यार्थियें पर दो प्रकार से प्रभाव पड़ता है।
- धनात्मक प्रभाव (पॉजिटिव इफेक्ट) : जब संवेगों के द्वारा विद्यार्थी पर अच्छा प्रभाव पड़े तो वह धनात्मक प्रभाव कहलाता है।
- संवेग अभिव्यक्ति का माध्यम है, संवेग के दौरान विद्यार्थी के शरीर और चेहरे के हाव-भावों के द्वारा उसकी इच्छाओं का पता लगाया जा सकता है।
- शिक्षक संवेगों के मायध्म से विद्यार्थी का आत्म और सामाजिक मूल्यांकन करते हैं कि बालक संवेगों को किस प्रकार व्यक्त करते हैं।
- शिक्षक बालकों के साथ अन्तःक्रिया कर आत्म मूल्यांकन करते हैं। छात्र भी अपना आत्म मूल्यांकन करते हैं। जिससे उनमें सुधार की सम्भावनाएॅं बढ़ती है।
- संवेग विद्यार्थी का लक्ष्य निर्धारित करता है, कार्य करने के लिए प्रेरित करता है। संवेगों के द्वारा विद्यार्थियों में आदतों का निर्माण होता है। जैसे संवेग से सुख की उत्पत्ति होती है तो उससे बालक को खुशी मिलती है और बालक इस खुशी को हमेशा प्राप्त करने की कोशिश करता है।
- ऋणात्मक प्रभाव : संवेग जैसे कुण्ठा, ईर्श्या, तनाव का प्रभाव बालक की बुद्धि पर पड़ता है। संवेगों से बालक के शरीर में परिवर्तन होता है। संवेगों की तीव्रता से समायोजन पर कुप्रभाव पड़ता है।
- संवेगीय तनाव से बालक की शारीरिक क्रियाओं, क्रियात्मक कार्यों पर कुप्रभाव पड़ता है उसके कुछ कौशल नष्ट हो जाते हैं। शरीर के हाव-भाव पर नकारात्मक प्रभाव पड़ते हैं।
- समायोजन में कठिनाई आती है। बालक, चिड़चिड़ा लोगों से अलग रहने, आक्रामक मनोवृत्ति उत्पन्न होती है।