अभिप्रेरणा को ही सीखने का हृदय, सीखने का स्वर्ण पथ, अनिवार्य स्थिति तथा सीखने का मुख्य कारक कहा गया है।
अभिप्रेरणा एक मानसिक प्रक्रिया या एक आन्तरिक शक्ति है। जो अन्दर से किसी व्यक्ति को कार्य करने के लिए सदैव अभिप्रेरित / प्रोत्साहित करती है। दूसरे शबदों में अभिप्रेरणा एक ऐसी शक्ति होती है जो हमें किसी कार्य को करने के लिए प्रेरित करती है और तब तक प्ररित करती है जब तक की लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो जाए। यह प्राणी की वह अवस्था है, जो उसे किसी आवश्यक्ता के कारण भीतर से संचालित करती है तथा उसे लक्ष्य की ओर निर्देशित करती है।
उदाहरण -१. एक छोटाा सा पक्षी छत के एक कोने में अपना घोंसला बनाता है। हम उसके घोंसले को तोड़ देते हैं लेकिन वह पक्षी फिर से तिनका-तिनका आदि इकट्ठा करके घोंसला बनाने में लग जाता है। वह ऐसा इसलिए करता है क्योंकि उसे अभिप्रेरणा ऐसा कठिन कार्य करने के लिए प्रेरित करती है।
उदाहरण -२. एक लडका साईकिल चलाना सीखता है, वह बार-बार गिरता है,य चोट खाता है लेकिन फिर भी वह साईकिल चलाना नहीं छोड़ता क्योंकि उसे यह कार्य करने के लिए अभिप्रेरणा प्रेरित कर रही है।
उदाहरण -३. एक पुरानी कहानी है कि एक मकड़ी दीवार पर चढ़ने की कोशिश करती है और वह फिसल जाती है वह बार-बार प्रयास करती है और बार-बार हो असफल हो जाती है उसने ऐसा अनेकों बार किया। अन्त में वह दीवार पर चढ़ने में सफल हो जाती है। मकड़ी ने ऐसा इसलिए किया क्योंकि वह आनतरिक रूप से अभिप्रेरित थी।
‘प्रेरणा साध्य प्राप्ति के लिए साधना करने का साधन है।’’
शब्दिक रूप में अभिप्रेरणा उद्दीपक से उत्पन्न उत्तेजना की वह अवस्था है जो व्यक्ति को कार्य करने के लिए प्रोत्साहित करती है।
अभिप्रेरणा के घटक(Components of Motivation)
जॉन पी. डिसैको ने अभिप्रेरणा के चार घटक बताये हैं-
1. उत्तेजना (सचेत/चौंकना)-किसी प्राणी के उत्तेजित होने की सामान्य, अवस्था उत्तेजना कहलाती है। इसके तीन सतर होते हैं उच्च, मध्य, निम्न।
उदाहरणार्थ – उच्च स्तर – व्यक्ति का उतावला या चिन्तित होना, मध्य स्तर – व्यक्ति का सतर्वâ होना एवं निम्न स्तर – एक व्यक्ति सो रहा है।
2. आकांक्षा – ब्रूम के अनुसार, आकांक्षा एक क्षणिक विश्वास है कि ऐसा करने से, ऐसा होगा।
उदाहरणार्थ – यदि किसी विद्यार्थी को विश्वास है कि किसी पुस्तक से, आने वाले प्रश्न पत्र में उस पुस्तक से चार प्रश्न मिलने की संभावना है तो उस पुस्तक को पूरी पढ़ना चाहेगा।
3. प्रोत्साहन – प्रोत्साहन लक्ष्य तक पहुँचने का एकमात्र पूर्ण साधन होता है। आवश्यकता की पूर्ति होेते ही व्यक्ति को प्रोत्साहन की प्राप्ति हो जाती है।
उदाहरणार्थ – किसी छात्र को किसी परीक्षा में 100 छात्रों में से प्रथम स्थान प्रापत करने पर उसकी प्रशंसा की जाये तो वह अगली कक्षा में भी प्रथम स्थान प्राप्त करने की कोशिश करेगा।
4. दण्ड – थार्नडाइक के अनुसार, बालक को दण्ड देते समय उसको उसका अपराध बता देना चाहिए दण्ड केवल उसी स्थिति में ही दिया जाना चाहिए जब धनात्मक तरीकों से काम न चले।
अभिप्रेरणा के प्रकार (Types of Motivation)
आवश्यकता से लेकर लक्ष्य प्राप्ति तक के सम्पूर्ण घटनाक्रम को अभिप्रेरणा कहते हैं। जैसे-अभिप्रेरणा ृ आवश्यकता ± चालक ± लक्ष्य । अभिप्रेरणा दो प्रकार की होती है।
१. सकारात्मक / प्राकृतिक / आंतरिक अभिप्रेरणा – ऐसी अभिप्रेरणा, जो स्वयं से प्रेरित होती है, सकारात्मक अभिप्रेरणा कहलाती है। इस प्रेरणा में बालक किसी कार्य को अपनी स्वयं या आन्तरिक इच्छा से करता है। सकारात्मक प्रेरणा से किसी कार्य को करने पर सन्तोष मिलता है। व्यक्ति अपने सुख व आनंद की प्राप्ति के लिए करता है। आंतरिक अभिप्रेरण से तात्पर्य मोटे तौर पर स्वत: अभिरुचि से होता है। इसे प्राकृतिक / आंतरिक अभिप्रेरणा भी कहते हैं।
उदाहरण – एक बच्चे को गणित के प्रश्न हल करने से आनंद की प्राप्ति होना। स्वयं की खुशी के लिए शिल्प कार्य करना। एक बालक निबंध व कविताएं अधिक पढ़ता है क्योंकि उसे इस कार्य को करने में खुशी मिलती है। एक बालक दूसरों की सहायता इसलिए करता है क्योंकि उसे खुशी मिलती है।
२. नकारात्मक / कृत्रिम / बाह्य अभिप्रेरणा – ऐसी अभिप्रेरणा बालक किसी कार्य को स्वयं की इच्छा से न करके किसी दूसरे की इच्छा से या बाह्य प्रभाव के कारण करता है, नकारात्मक अभिप्रेरणा कहलाती है। यह परिस्थिति अथवा दबाव के समाप्त होते ही स्वयं समाप्त हो जाती है। इसे बाह्य अभिप्रेरणा /कृत्रिम अभिप्रेरणा भी कहते हैं। जैसे – निंदा, पुरस्कार, प्रतिद्वन्द्विता आदि।
उदाहरण – एक बच्चा गणित के प्रश्न इसलिए हल करता है, कि उसे दण्ड नहीं मिले, छोटे बालक को निबंध याद करने के लिए चॉकलेट (लालच) देने की बाद कही जाए तो बालक सिर्पâ चॉकलेट प्राप्त करने के लिए ही निबंध याद करे नकारात्मक प्रेरणा है, पुरस्कार प्राप्ति के लिए दौड़ प्रतियोगिता में भाग लेना, कमाने के लिए शिल्प कार्य करना, एक बालक का गृहकार्य इसलिए करना ताकि उसे पुरस्कार मिले आदि।
अभिप्रेरणा के सिद्धान्त(Principles of Motivation)
अभिप्रेरणा के सिद्धान्त इस बात की व्याख्या करते हैं कि कोई व्यक्ति किसी व्यवहार को क्यों करता है? व्यवहार का जन्म किसी न किसी इच्छा, चाहत तथा आवश्यकता के फलस्वरूप ही होता है अत: अभिप्रारणात्मक चक्र की पहली मूल बात व्यक्ति में किसी इच्छा या चाहत का जन्म होना है। व्यवहार के सिद्धान्त का वैज्ञानिक प्रतिपादन डेकार्ते ने किया। डेकार्ते के बाद थॉमस हॉब्स ने मनोवैज्ञानिक सुखवाद के आधार पर व्यवहार की व्याख्या की है।
अभिप्रेरणा का मूल प्रवृत्ति सिद्धान्त
अभिप्रेरणा का मूल प्रवृत्ति सिद्धान्त का प्रतिपादन सन् 1908 में विलियम मैक्डूगल ने किया था। वस्तुत: यह सिद्धान्त यह मानता है कि किसी भी परिस्थिति में किसी विशेष प्रकार का व्यवहार मानव क्यों करता है, विलियम मैक्डुगल कहता है – मूल प्रवृत्तियाँ ही व्यक्ति के व्यवहार का उद्गम करती है। चाल्र्स इरविन की मान्यता थी कि प्राणी कुछ मूलभूत क्रियाओं को अपनी पहली पी़ढ़ी से सीखता है, जैसे-किसी बालक की नाखून कुतरने की आदत।
मैक्डूगल के द्वारा बताई गई 14 मूलभूत प्रवृत्तियों तथा उनसे सम्बन्धित संवेगों की सारणी निम्नलिखित है –
क्र. मूल प्रवृतिृ संवेग
१. पलायन/भागने की प्रवृत्ति भय
२. युयुत्सा / युद्धप्रियता की प्रवृत्ति क्रोध
३. अप्रियता / विकर्षण दूसरों को नापंसद करने की प्रवृत्ति घृणा
४. संतान कामना / शिशु रक्षा की प्रवृत्ति वात्सल्य
५. संवेदना / दया की प्रवृत्ति कष्ट
६. काम प्रवृत्ति कामुकता
७. जिज्ञासा की प्रवृत्ति आश्चर्य
८. स्वयं को नापसंद करने की प्रवृत्ति आत्महीनता
९. गौरव / आत्मप्रदर्शन / श्रेष्ठता की प्रवृत्ति आत्माभिमान
१०. सामूहिकता का भाव एकाकीपन
११. भोजनान्वेषण की प्रवृत्ति (अन्वेषण – खोजना) भूख
१२. संग्रहण / अधिकार की प्रवृत्ति अधिकार भावना स्वामित्व
१३. रचनात्मकता / सृजनात्मकता की प्रवृत्ति रचनाभूति
१४. हास्य की प्रवृत्ति आमोद
उदाहरण
उदाहरण -1.
दो दोस्त जंगल में घूमने जाते हैं, अचानक साँप उनके आगे आ जाता है। उसे देखकर वह भाग जाते हैं, यह क्रिया भय संवेग से होने वाली पलायन मूल प्रवृत्ति है।
उदाहरण -2.
मोहन और सोहन दो दोस्त एक-साथ रहते हैं उसमें से मोहन सोहन को बार-बार परेशन करता है, उसके सामान को नुकसान अर्थात् तोड़ देता है, तत्पश्चात् सोहन को क्रोध संवेग आ जाता है और युयुत्सा मूल प्रवृत्ति होती है।
उदाहरण -3.
सीता को गीता की बातें पसंद नहीं है तथा उसको गीता का कार्य करने का तरीका भी पसंद नहीं है। इस वजह से सीता में घृणा संवेग और विकर्षण मूल प्रवृत्ति होती है।
उदाहरण -4.
एक औरत जिसके बच्चे नहीं है, वह किसी भी दूसरे बच्चे को देखकर उसके प्रति प्रेम, स्नेह तथा उसकी रक्षा का भाव रखती है, तो उस और में वात्सल्य संवेग और संतान कामना मूल प्रवृत्ति है।
उदाहरण -5.
रावण का भाई विभीषण जब श्रीराम की शरण में आता है, तब श्रीराम अपने दुश्मन रावण के भाई विभीषण के प्रति करूणा संवेग रखते हुए दया की मूल प्रवृत्ति रखते हैं।
उदाहरण -6.
कामुकता संवेग काम प्रवृत्ति मूल प्रवृत्ति को जन्म देती है।
उदाहरण -7.
परीक्षा में राम के श्याम से अधिक अंक आ जाते हैं, अर्थात् राम कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त करता है, तो श्याम को इस बात पर आश्चर्य संवेग होता है और राम प्रथम स्थान वैâसे आया इस बात को जानने के लिए वह जिज्ञासा की मूल प्रवृत्ति रखता है।
उदाहरण -8.
किसी बच्चे को बार-बार उपेक्षा करना अर्थात् उसके द्वारा किये गये हर कार्य में कमी निकालना, उसे बार-बार पागल कहना, निकम्मा कहना आदि। ऐसा करने पर उस बच्चे के मन में आत्महीनता संवेग आ जाता है तथा वह स्वयं को नापसंद करने की मूल प्रवृत्ति में ढल जाता है।
उदाहरण -9.
सोहन को स्वयं के ऊपर हद से ज्यादा विश्वास था, कि यह कार्य सिर्पâ मैं ही कर सकता हूँ। मैंने ऐसा किया, मेरे अलावा यह कार्य कोई कर ही नहीं सकता। सोहन का यह भाव आत्मभिमान संवेग को और श्रेष्ठता की मूल प्रवृत्ति दर्शाता है।
उदाहरण -10.
राजू अपनी कक्षा में अकेला बैठना पसंद करता है, उसके मित्रों के बीच बैठने पर वह असुविधाजनक महसूस करता है क्योंकि उसमें एकाकीपन संवेग तथा सामूहिकता का भाव की मूल प्रवृत्ति है।